चाह
आकुल ह्रदय ने आज माँगा फिर वही अभिषेक हे
स्वप्न जो पूरे हुए ना, चाह जिनकी शेष है
नश्वर तिमिर का कलुष रूप, दारुण व्यथा का यह स्वरुप
दम तोडती पर्छैयाँ, रवि दे रहा निस्तेज धुप
चुपचाप रोता व्योम यों, कण कण धरा का होम ज्यों
पत्थर पिघलता मोम क्यों? विष घोलता सा सोम क्यों
स्वप्नों की काया के भवन का अब खंडहर अवशेष हे
स्वप्न जो पूरे हुए ना चाह जिनकी शेष हे