विचार्रों का आदान प्रदान

शब्दों के चक्रव्यूह को समझना एक कवि के लिए कुछ इस तरह से जरूरी है, की हर कविता कुछ वादों, इरादों और शब्दों के सुर ताल के मिश्रण के बिना अधूरी है

आयें है महान कवि हमारे भारत देश में कई , और आयेंगे आगे भी अभी,मगर एक महान कवि बनने के लिए जो नाम कमा गए उनके पद चिन्हों पर चलना बेहद जरूरी है

कविता चाहे वीर रस हो या श्रृंगार रस, या फिर प्रेम रस, बस हर रस के लिए शब्द रस को समझना जरूरी है

है ये मेरी रचना आपसे कुछ विचार्रों के आदान प्रदान के लिए, जो की आपके शब्दों के आगमन के बिना अधूरी है

Saturday, April 9, 2011

हरिवंश राय बच्चन जी की रचना

मुझे हरिवेंश राय बच्चन जी की कई रचनायें पसंद है, उसमें से ये एक रचना के लिए अपनी सोच को मैं उजागर करना चाहती हूँ . इस कविता मैं बच्चन जी ने आदमी के पथ को उसकी दिनचर्या से जोड़ते हुए बहुत ही सुन्दर रूप मैं व्याख्यान क्या है.
हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंज़िल भी तो है दूर नहीं -
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे  -
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचल? -
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!


बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे  -
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

इस कविता का ये एक पहरा मुझे काफी पसंद है, इसमें बच्चन जी ने एक आम आदमी के दिल का बहुत ही प्यार से व्याख्यान  किया है. इन्होने बताया है की जब एक  थका हार आदमी पुरे दिन के काम के बाद चार जाते समय अपने मन मैं क्या सोचता होगा , इसी सोच को इन्होने एक बहुत ही सुन्दर प्रारूप से सजाया हैं
इसी  सोच से कहीं ना कही मिलती जुलती कुछ पंकितयां मैंने लिखी, आशाकरती हूँ की आपको पसंद आएँगी

रुक कर क्या जानोगे  तुम?
बढ़ कर अपनी मंजिल पाओगे तुम
रुक कर कुछ नहीं जान पाओगे तुम
अगर जीवन जीना चाहते हो तो बढे चलो, बढे चलो....



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