विचार्रों का आदान प्रदान

शब्दों के चक्रव्यूह को समझना एक कवि के लिए कुछ इस तरह से जरूरी है, की हर कविता कुछ वादों, इरादों और शब्दों के सुर ताल के मिश्रण के बिना अधूरी है

आयें है महान कवि हमारे भारत देश में कई , और आयेंगे आगे भी अभी,मगर एक महान कवि बनने के लिए जो नाम कमा गए उनके पद चिन्हों पर चलना बेहद जरूरी है

कविता चाहे वीर रस हो या श्रृंगार रस, या फिर प्रेम रस, बस हर रस के लिए शब्द रस को समझना जरूरी है

है ये मेरी रचना आपसे कुछ विचार्रों के आदान प्रदान के लिए, जो की आपके शब्दों के आगमन के बिना अधूरी है

Saturday, April 6, 2013


फिर से खिलखिला कर जीना चाहती है …...

इक हंसी सी मन में आज भी खिलखिला कर जाती हैं
जब बचपन और जवानी की वो यादें कुछ मन में बुदबुदा कर जाती है

माँ की वो लोरियां आज भी बड़ी याद आती हैं
जब रातों की वो नींद आखों से छु मंतर हो उड़ जाती हैं

पिता की वो डांट आँखों को आज भी नम कर जाती हैं
जब उनकी डांट में छुपी प्यार की गहराई मन को छु कर जाती है

दादी की कहानियां आज भी परियों के देश में ले जाती हैं
जब बचपन के सपनों की अटखेलियाँ कहीं दूर झरोखे में से मुझे बुलाती हैं

बहनों के साथ की वो लड़ाई आज भी दिल को रुला कर जाती हैं
जब लड़ाई में छुपी वो प्यार की लहर दिल में ख़ुशी और आँखों में प्यार भरे आंसू दे जाती है

भाई का वो कभी रुलाना तो कभी प्यार से मनाना आज भी वो यादें मन में गीत  बन गुनगुनाती है
जब वो े यादें अकेलेपन में भी उन खुशियों को समेट इस बावरे मन को खुश कर जाती है

दोस्ती की वो बाते आज भी बचपन से जवानी तक के पिटारे को खोल जाती है  
जब इस दिल को उन खट्टी मिट्ठी यादों से खेलने की चाह कर जाती है

जिन्दगी मेरी आज भी उस ख़ुशी भरे पिटारे को खोल नए सपनों को  बुनती जाती है ै
जब ये आँखे फिर से कुछ रंगीन पलों के साथ खिलखिला कर छलछला जाती है

Sunday, August 26, 2012

काश मुझे वो क्षण मिल पाता …....

नदियाँ के नीचे होता एक अम्बिया का पेड़
और उस पर लगे होते वो खट्टे खट्टे आम हरे
हर सवेरा होता उस सूरज की धूप
और आती जब नींद तो मिल जाती वो अम्बिया के पेड़ की रूह
करता कभी इकठ्ठे जब चार आने
तभी उड़ जाता दोस्तों के संग उन गलियों में  वो बर्फ के गोले खाने
बारिश होती तो उसके पानी में खुद को रंग लेता
उछलता, कूदता हुआ अपनी जेब  में उन सारे रंगों को मैं भर लेता
बीमार होता मैं जब, बुखार का भी मज़ा  कुछ होता तब और
माँ की गोद के लालच मैं वो काढ़ा भी मीठा समझ मैं पी लेता
करता मैं बापू के कंधे पर बैठ वो हरे हरे खेतों की सैर
थक कर सुनता जब दादी की कहानी, रात की नींद हो जाती तब सुनहरे सपनों  की रानी
सुबह हर सपने को सोचता सोचता अपना बस्ता ले पाठशाला मैं जाता
और अपने बस्ते मैं रखे माँ के खाने को कक्षा में ही मैं खा जाता
शायद कच्ची उमर का कच्चा जीवन होता तब वो
दुनिया की भीड़ से दूर एक सादा जीवन होता बस वो
कहाँ समझ पाया उस कच्ची उमर से बंधे उन पक्के धागों को
काश आज मेरे बचपन का एक क्षण भी मुझे मिल पाता...

Wednesday, August 17, 2011

राजनीती



राजनीती एक दरिया है

वादों का, विचारों का, कभी सवालों का तो कभी जवाबों का
लोकतान्त्रिक भारत देश है ये
जवानों का , धर्मों का, कभी शहीदों का तो कभी सत्ता चला रही इस आवाम का
आवाम, आवाम परिभाषा है अधिकारों की, स्वतंत्रता में डूबे कुछ आम विचारों की
आवाम शक्ति है सचाई की, एक ही लय से जुड़े इरादों की
मगर परिभाषाओं का क्या, वो तो खुद ही सता के दरिया में घुल कर अपना अस्तित्व खो जाती है
सच कहूँ, सच के भेष में आकर वो ही परिभाषाएं झूठ का तांडव दिखाती है
तांडव होता है वो झूठे वादों का, कभी झुठे इरादों का तो कभी झूठे सहारों का
भारत की जनता सदियों से इस झूठ के काल से जूझ रही है
कहते हैं इस देश को चलाएंगे, तुम्हें रोटी क्या कपडा और मकान भी दिलाएंगे
तुम हमे समर्थन दो, हम अपने वादों को पूरा कर दिखायेंगे
आजादी के इतने सालों बाद भी इन वादों में दम है
क्योंकि हमारी आवाम आज भी कपड़ा और मकान क्या रोटी से भी महरूम हैं
शिक्षा का विकास होते हुए भी हम क्यों बार बार झूठ, फरेब के जाल में फंसे अंधे हो रहे है
देश हमारा है, कानून हमारा है, फिर भी क्यों हम इन झूठे वादों को तोड़ नहीं रहे हैं
आने वाली पीढ़ियों  को हम क्यूँ उसी भंवर में जला रहे हैं
क्यों नहीं हम उन्हें निश्छल वादों, इरादों का अस्तित्व दे पा रहे है



Tuesday, May 24, 2011

ये जिंदगी आखिर क्या खोज़ती हैं ?

कई सवालों से भरी ये जिंदगी आखिर क्या खोजती हैं  ?
अंधेरों और उजालों से भरी ये जीवन की  डगर आखिर किसे  ढूँढती हैं  ?
क्यूँ ये आँखे कुछ खोने पर छलछला उठती हैं ?
क्यूँ ये आरज़ू मुश्किल डगर पर डगमगा उठती हैं ?
शायद ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब जिंदगी अंत तक ढूँढती हैं  
और कुछ इसी तरह  जिंदगी की हर डगर इक सवाल हमसे करती हैं ...

Sunday, May 22, 2011

परदेस

वो पूछते हैं हमसे, क्यूँ जाते हो तुम परदेस
हम  कहते उनसे, अपनी  जिंदगी मैं रंग भरने जाते हैं हम परदेस
वो पूछते हैं हमसे , रंगों भरी दुनिया कैसी लगती हैं अब तुम्हे
हम कहते हैं उनसे अपने देश की सूरज की किरण और रात की चांदनी ज्यादा रंगीन लगती हैं अब हमें...

Monday, April 18, 2011

जीवन के सुर

जब गगन चूमता है धरती को
सावन  का रंग चढा देता है तब वो
जब रात ओढती है चाँदनी का पर्दा
तारों को अपने आँचल में सजा लेती है  तब वो
जब  नदी लपेटती है सागर की चादर
खुद को सागर मैं संजो लेती है  तब वो
जब  नेत्र  देखते है कोई सुन्दर द्रश्य
स्वयं को उस सुन्दर द्रश्य मैं रमा लेते हैं तब वो
जब कर्ण सुनते कोई प्रिय वचन
उन प्रिय शब्दों मैं विभोर हो जाते हैं तब वो
जब जिंदगी गाती है कोई सुर
तो  सारे सुरों को अपने राग मैं ढाल लेती है तब वो 
जब होता है जीवन का म्रत्यु से सामना
उसे नए जीवन की शुरुआत मान अपने अस्तित्व मैं मिला लेती है तब वो 







Saturday, April 9, 2011

हरिवंश राय बच्चन जी की रचना

मुझे हरिवेंश राय बच्चन जी की कई रचनायें पसंद है, उसमें से ये एक रचना के लिए अपनी सोच को मैं उजागर करना चाहती हूँ . इस कविता मैं बच्चन जी ने आदमी के पथ को उसकी दिनचर्या से जोड़ते हुए बहुत ही सुन्दर रूप मैं व्याख्यान क्या है.
हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंज़िल भी तो है दूर नहीं -
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे  -
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

मुझसे मिलने को कौन विकल?
मैं होऊँ किसके हित चंचल? -
यह प्रश्न शिथिल करता पद को, भरता उर में विह्वलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!


बच्चे प्रत्याशा में होंगे,
नीड़ों से झाँक रहे होंगे  -
यह ध्यान परों में चिड़ियों के भरता कितनी चंचलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!

इस कविता का ये एक पहरा मुझे काफी पसंद है, इसमें बच्चन जी ने एक आम आदमी के दिल का बहुत ही प्यार से व्याख्यान  किया है. इन्होने बताया है की जब एक  थका हार आदमी पुरे दिन के काम के बाद चार जाते समय अपने मन मैं क्या सोचता होगा , इसी सोच को इन्होने एक बहुत ही सुन्दर प्रारूप से सजाया हैं
इसी  सोच से कहीं ना कही मिलती जुलती कुछ पंकितयां मैंने लिखी, आशाकरती हूँ की आपको पसंद आएँगी

रुक कर क्या जानोगे  तुम?
बढ़ कर अपनी मंजिल पाओगे तुम
रुक कर कुछ नहीं जान पाओगे तुम
अगर जीवन जीना चाहते हो तो बढे चलो, बढे चलो....